Sunday 30 September 2012

बदलाव



जब छोटे थे,
तुम उसे कितना नचाया करते थे,
हर त्योहार मे वह,
तुम्हारे साथ होती थी,
आज भी तुम,
उसे नचाते हो,
अपने इशारो से,
तुम उसे लोचन सा,
तिमिर-तिमिर घुमाते हो,
बचपन की वह मस्ती,
तुम्हे खुशी देती थी,
आज भी तुम खुश हो,
वह भी कठपुतली सा नृत्य करती है,
लेकिन…….
अब तुम्हे उसकी डोर नही पकडना पडती,
वह आधुनिक हो गई है ना?
तुम्हारे इशारो से,
एक आगामी प्रस्तुती देती है,
तुम कितने खुशनसीब हो,
तुम आजाद हो गये हो,
लेकिन…………………
वह आज भी कठपुतली है,
कल वह,
खिलौने बेचने वाले का,
और आज अपने बूढे माँ-बाप,
का पेट भरती है,
इन बीते सालो मे,
अगर कुछ बदल गया है,
तो………….
वह पहले मिट्टी की हुआ करती थी,
लेकिन आज तुम जकड़ कर पत्थर के बन गये हो।

रचना:
प्रतीक संचेती

Friday 28 September 2012

भावो की उड़ान



नहीं जानता इन शब्दो का कारण,
मेरे मन मे ऐसे भाव उठ रहे है,
खूब चाहा आज दबाना इन्हे,
लेकिन यह कहाँ रुक रहे हैं।
कहीं चेहरो की रंजिश ने दाबिश दी है,
कहीं औरो के ख्याल दिख रहे हैं,
लोगो की सुनी तो दिवाना ना बना,
आज दिलो से जंजाल बिक रहे हैं।
तेरे चेहरे को देख कर खुदा भी ना माना,
कुदरत जो अदभुद यह आकार लिख रहे हैं,
बारिशो की रंजिश मै भीगना चाहता हुँ आज,
लेकिन ‘प्रतीक’ दिल मे कई कलाकार टिक रहे हैं।
मेरे मन से कई पार दिख रहे हैं,
आवारा भावो के सत्कार दिख रहे है……………मुझे मेरे कई कलाकार दिख रहे हैं……………….!

धन्यवाद
प्रतीक संचेती

Thursday 27 September 2012

“काँटो का दिवाना- प्रतीक हुआ मस्ताना”


तेरे दिवाने हम कहाँ थे,
तेरी खामोशी ने बना दिया,
हमने तेरी कोमल कलियो से,
एक नया बाग सजा दिया।

चाहत की हद भी ना देखी,
गैरो ने काँटो के प्यार मे,
दुनिया ने जिसे इतना कोसा,
तूने उसे साथ बिठा दिया।

तेरे दिवाने हम कहाँ थे,
तेरी खामोशी ने बना दिया।

लाखों ठोकर खाने पर भी,
उसको मंजिल कहाँ मिली,
अपनी खामोशी से उसने,
तुझको आबाद करा दिया।

तेरा अस्तित्व काँटो से है,
तूने इसे बखूबी जाना गुलाब,
लेकिन मुश्किलो मे इंसानो ने,
तुझपर भी इंजाम लगा दिया।

तेरे दिवाने हम कहाँ थे,
तेरी खामोशी ने बना दिया।

धन्यवाद
प्रतीक संचेती

Tuesday 18 September 2012

~~जय श्री गणेश~~



लंबोदर के साथ मैने,
जीत ली दुनिया पुरानी,
आ गये है आज फिर से,
दे रहे मुझको जवानी।

सिर मे मुझको जो बिठाकर,
आपने मंजिल दिखाई,
हे प्रभु नाथ सबके,
आपको फिर से बधाई।

जो कभी कुछ युँ हुआ था,
आपने देखी थी तडपन,
दे रही है जोश मुझको,
आपकी वह योग कंचन।

आपके उन संस्कारो से,
गीत की रचना सजाई,
हे प्रभु नाथ सबके,
आपको फिर से बधाई।।

धन्यवाद
प्रतीक संचेती

Wednesday 5 September 2012

“गुरू ही गुलाब”




आज शब्दो से ज्यादा उन हसीन मुहावरो को समेट कर मेरे तमाम शिक्षको को नमन करता हुँ। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आप सभी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, मेरे हर कदमो को एक नई गती प्रदान की है। आप सभी के द्वारा मुझे जो व्यवहारिक योग्यता प्राप्त हुई उसके लिये मै सदैव आभारी हुँ, आपको समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ:

जहान न होता न होता गौरव,
न होती इन शब्दो की नक्कासी,
यहाँ न होती वह मंजिल-महफिल,
अगर न होती वह शिक्षक वाही।

सबर न होता न होता शीलत,
न होती उम्मीदो की भरपाई,
यहाँ न होती वह कर्मठ-कोशिश,
अगर न होती वह अतुल्य भलाई।

खडे न होते वह नटखट अंकित,
न होती इन शब्दो से चढाई,
अलग सरी की रचना ना रचती,
अगर न मिलते जिनकी करूँ अगुवाई।

धन्यवाद
प्रतीक संचेती