Thursday 22 November 2012

‘अंत से अंत तक’



जब कोई बहुचर्चित व्यक्ति देह छोड़ता है तो उपहार हेतु उनकी स्मारक बनाई जाती है। लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे होते है जो उस व्यक्ति-विशेष की अच्छी आदतो को अपने जीवन मे ऊँचा स्थान प्रदान करते है।


हर व्यक्ति के अपने आर्दश होते है और वह उसी हिसाब से अपना जीवन यापन करता है। लेकिनअंत से अंततक का यह किस्सा बहुत ही निराला है। कोई मर जाये तो स्मारक बना दो और आने वाली पीढी को उनके नाम याद करा दो।

दोस्तो, लेकिन उन आर्दश, संस्कृति और तमाम स्मारक मेफसेउन व्यक्तियों के संघर्ष का क्या जो दिन--दिन खत्म होता जा रहा है। किताब, स्मारको और राम-राम से पहले हमे उन तमाम लोगो को बाहर निकालकर पहले इंसान को इंसान बनाना होगा तभी यह स्मारम और किताबे अपना कार्य करेंगी अन्यथा मै और आप मिलकर कहुँ, राम-राम के बाद कहुँ। पेश है पंक्तियां:


राम-राम के बाद कहुँ,
स्मारक का नाम धरुँ,
हिन्दु-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई,
सारे धर्मो कानाजकहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


बिन औधाले उप-आधि’,
सारी दुनिया लुट जाती,
कुछ ने तो ना छोड़ा मुझको,
मै इंसान कहुँ हैवान कहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


उठ जाती जब मेरी दुनिया,
औरो को दिखती हैं बगिया,
मूर्त स्मारक सब पैसा-पैसा,
उपकार कहुँ या बरबाद कहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


रचना:
प्रतीक संचेती