Saturday, 11 May 2013

“बचपने से भरा बचपन”




बचपन के उन पलो को हम कभी शायद दोहरा तो नही सकते लेकिन उन बिताये पलो को कभी भूलना मुमकिन नही है/ ऐसे ही पलो को समेटने पेश है मेरी कुछ पंक्तियाँ:

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद   रहीं है,
बहन के साथ खेलना मस्ती भरी होली,
और माँ की याद मुझको रुला रही है/

वह तस्वीर आज इतना सता रही है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है/

मंजिलो कि खातिर दूर लगता था जाना,
लेकिन अब तो यह मंजिले भी तड़पा रहीं है,
दिल के दरवाजे अब जिस मोड पर खुलते,
वह गलिया मेरे माँ-पा के चरणो मे समा रहीं है/

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है/

शायद मै कभी तुमको बता ना पाया,
माँ अपने दिल की बात कभी समझा ना पाया,
तुम्हारी खुशियो के खातिर ही तुमसे दूर हुँ आज,
यहाँ आपकी समझ ही मुझको चलना सिखा रहीं है/

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है,
वह तस्वीर आज इतना सता रही है/-2

रचना:
प्रतीक संचेती

Tuesday, 2 April 2013

“कुदरत की इकाईयाँ”





लोगो ने कहा………….
अगर जिंदगी को जीना है;
तो काँटो से सीखो, कलियो से सीखो, बादल से सीखो,
मै सीखता रहा हर एक बंदे की नुमाईश पर……………
कि फिर………….
किसी ने कहा खुदा की इबादत से सीखो,
खिलते फूलो से सीखो, मौसम की आहट से सीखो……………………..

सिखाता रहा मुझे हर एक फरिश्ता,
कि मिलती रही मौसम की गहराईयाँ,
समुन्दर को छु लू ऐसा मेरा कद तो नही दोस्तो,
लेकिन आप अपनो से मिलती रही ऊचाईयाँ……..
सारे अरमानो को मैने इंसानियत मे उतारा जब,
मुझे मिलती रही खुशबू और आपके प्यार की रूबाईयाँ……………………….

तुकबंदी कहो या कहलेना इसे दिल की धड़कन,
सिखाती रही मुश्किले और बनती रही कहानियाँ,
कुदरत का स्पर्श मिलता रहा हर एक स्थान पर,
चाहे हो धरती, बादल, काँटे या अपनो की अच्छाईयाँ,
सारा कुछ इसी का है यह फूल, पौधे,
सब इसकी ही तो है इकाईंयाँ………………………
कुदरत ने दूर की मेरे दिल की हर एक तनहाईयाँ,
आप अपनो से मिलती रही जीवन को गहराईयाँ,
सब इसकी ही तो है इकाईयाँ……………….सब इसकी ही तो है इकाईयाँ……………………….

रचना:
प्रतीक संचेती

Thursday, 22 November 2012

‘अंत से अंत तक’



जब कोई बहुचर्चित व्यक्ति देह छोड़ता है तो उपहार हेतु उनकी स्मारक बनाई जाती है। लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे होते है जो उस व्यक्ति-विशेष की अच्छी आदतो को अपने जीवन मे ऊँचा स्थान प्रदान करते है।


हर व्यक्ति के अपने आर्दश होते है और वह उसी हिसाब से अपना जीवन यापन करता है। लेकिनअंत से अंततक का यह किस्सा बहुत ही निराला है। कोई मर जाये तो स्मारक बना दो और आने वाली पीढी को उनके नाम याद करा दो।

दोस्तो, लेकिन उन आर्दश, संस्कृति और तमाम स्मारक मेफसेउन व्यक्तियों के संघर्ष का क्या जो दिन--दिन खत्म होता जा रहा है। किताब, स्मारको और राम-राम से पहले हमे उन तमाम लोगो को बाहर निकालकर पहले इंसान को इंसान बनाना होगा तभी यह स्मारम और किताबे अपना कार्य करेंगी अन्यथा मै और आप मिलकर कहुँ, राम-राम के बाद कहुँ। पेश है पंक्तियां:


राम-राम के बाद कहुँ,
स्मारक का नाम धरुँ,
हिन्दु-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई,
सारे धर्मो कानाजकहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


बिन औधाले उप-आधि’,
सारी दुनिया लुट जाती,
कुछ ने तो ना छोड़ा मुझको,
मै इंसान कहुँ हैवान कहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


उठ जाती जब मेरी दुनिया,
औरो को दिखती हैं बगिया,
मूर्त स्मारक सब पैसा-पैसा,
उपकार कहुँ या बरबाद कहुँ।

राम-राम के बाद कहुँ।


रचना:
प्रतीक संचेती

Saturday, 27 October 2012



कई कहते है
मैने शब्दो मे
खुद को कस रखा है,
मै क्या बताऊँ उन्हे
इन्ही शब्दो से
मेरा दिल ढ़खा है,
कहने को तो
बहुत “गम” दिये
इस “हसीन जिंदगी” ने,
लेकिन जिंदादिलि का हक
बस इन्ही शब्दो मे बसा है।

कई कहते है,
मैने शब्दो मे
खुद को कस रखा है।

जहाँ
मन के भावो की
उड़ान मिले,
जहाँ
मुश्किलो मे भी,
खुला आसमान मिले,
ऐसे लम्हो को
कैसे छोड़ दू मै,
यह
लिखना कहाँ
मेरी जिंदगी का गिला है।

कई कहते है
मैने शब्दो मे
खुद को कस रखा है।

रचना:
प्रतीक संचेती