Tuesday 26 June 2012

व्यक्त्तिव की रचनाएँ

Written By Prateek Sancheti


सच लिखता हुँ फिर भी झूठी हैं सारी कल्पनाएँ, इस भाग दौड़ जीवन मै मनुष्य अपनी फिसल रही देख कितनी अदाएँ,
जीवन का हर रोग अब कैसे मुक्त होगा तू ही बता, जान कर भी अंजान है जो शक्ति और व्यक्तित्व की रचनाएँ।

चारों तरफ के उजाले मे देख आज कितना अँधेरा है, आधुनिक दुनिया जरूर है लेकिन मन मै कहाँ मौन का सवेरा है,
चल-विचल प्रकृती मे अनेको राज है लेकिन जीवन क्या है यह सिर्फ लोगो के लिए कंण मे अटकते अल्फाज है।

‘प्यार मे रस है’ लेकिन गुरूर मे कहाँ यह ‘फुरसत’ के लव्ज है, भूख है प्यास है लेकिन चार बातो के लिए भी नही कोई जज्बात है,
खेल है यह मौलिक संस्कृती के बदलते अंश का, मौन के लिए वक्त नही और सलाखो मे बन्द प्रेम की समीक्षाएँ।

सच लिखता हुँ फिर भी झूठी हैं सारी कल्पनाएँ, इस भाग दौड़ जीवन मै मनुष्य अपनी फिसल रही देख कितनी अदाएँ,
जीवन का हर रोग अब कैसे मुक्त होगा तू ही बता, जान कर भी अंजान है जो शक्ति और व्यक्तित्व की रचनाएँ, जो शक्ति और व्यक्तित्व की रचनाएँ ।


Friday 15 June 2012

नई शुरूवात

Written By Prateek Sancheti

नई शुरूवात कर के लिख रहा हुँ,
अपने पन्नों को रंगने ही दिख रहा हुँ,
मै तो चल रहा हुँ बंद कोने के सहारे,
इस लिए नई सड़क रोज परख रहा हुँ,

नई शुरूवात कर के लिख रहा हुँ।

घटती जा रही है रुचि दुनिया के संग मेरी,
क्यों कविताएँ भी दिख रही हैं अधुरी,
यह आईना है यारो हर समाज का,
शायद इसलिए पटरी पर ही फिसल रहा हुँ,

नई शुरूवात कर के लिख रहा हुँ।

Monday 11 June 2012

जब तक जवाँ हुँ!

Written By Prateek Sancheti

जब तक जवाँ हुँ चलता रहुँगा,
मोत के डर से लड़ता रहुँगा,
जो कहता है जीवन मजबूर है,
दोस्तों मै रोज जीवनी पलटता रहुँगा,

जब तक जवाँ हुँ चलता रहुँगा।

सोच मै हर पल वह बचपना है,
पहाडो के कारवाँ मे रोज ढ़लता रहुँगा,
नगमे उस खुदा के भी कहाँ दूर हैं,
मै तो बस “कहानी से कहानी” मसलता रहुँगा,

जब तक जवाँ हुँ चलता रहुँगा,
सपनो के साथ यूँही लड़ता रहुँगा,
जब तक जवाँ हुँ चलता रहुँगा, जब तक जवाँ हुँ चलता रहुँगा।

Tuesday 5 June 2012

कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ – मै बस किताबो मे सो रहा हुँ

Written By Prateek Sancheti
धूप की खौलती आँच मे तुझको खो रहा हुँ
मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ।

आज भी वह सुहाने अंदाज मे,
तितलियों कि मुस्कान पर दिल से बह रहा हुँ;
पर्यावरण का एक अंग अपने सपनो मे पिए,
काँटो से उनकी काबिलियत, गुलाब बन ले रहा हुँ।

इतना हल्का हुँ बस पत्तियों के सहारे,
आकाश मे मठक मैया को प्रणाम कह रहा हुँ;
मै तो कुदरत के जनाजे मे आ गया यहाँ,
इस बनावट की दुर्दशा देख बहुत सह रहा हुँ।

यह बोल है मेरे अपने खून के,
जो गर्मी के साये मे पलना है सवारे;
जिसको आज देखना पड़ा इस बदलते दृश्य को,
उसी मौसम को लपेट बस किताबो मे सो रहा हुँ।

धूप की खौलती आँच मे तुझको खो रहा हुँ,
मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ, मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ।