Tuesday, 5 June 2012

कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ – मै बस किताबो मे सो रहा हुँ

Written By Prateek Sancheti
धूप की खौलती आँच मे तुझको खो रहा हुँ
मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ।

आज भी वह सुहाने अंदाज मे,
तितलियों कि मुस्कान पर दिल से बह रहा हुँ;
पर्यावरण का एक अंग अपने सपनो मे पिए,
काँटो से उनकी काबिलियत, गुलाब बन ले रहा हुँ।

इतना हल्का हुँ बस पत्तियों के सहारे,
आकाश मे मठक मैया को प्रणाम कह रहा हुँ;
मै तो कुदरत के जनाजे मे आ गया यहाँ,
इस बनावट की दुर्दशा देख बहुत सह रहा हुँ।

यह बोल है मेरे अपने खून के,
जो गर्मी के साये मे पलना है सवारे;
जिसको आज देखना पड़ा इस बदलते दृश्य को,
उसी मौसम को लपेट बस किताबो मे सो रहा हुँ।

धूप की खौलती आँच मे तुझको खो रहा हुँ,
मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ, मै कुदरत को बचाने बहुत कुदरत बौ रहा हुँ।

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