Sunday, 13 October 2013

विजयादशमी और 21वी सदी


त्यौहारो का चौपाल लगा है,
एक दिवस का संसार लगा है,
माया-मोह-कपट मे देखो,
पुतलो का अंबार लगा है/

त्यौहारो का चौपाल लगा है/

बडे-बडे है देखो रावण,
आग लगाते धरती पावन,
क्रोध-हब्श की प्यास लगी है,
पुतलो मे अंगार लगा है/

त्यौहारो का चौपाल लगा है/

समय-समय की देखो रंजिश,
माता बहने होती शोषित,
काले चेहरो की कश्ती पर,
पुतलो से रोशन संसार खड़ा है/

त्यौहारो का चौपाल लगा है/

विजयादशमी की सभी को बहुत-बहुत शुभकामनाये/

रचना:

प्रतीक संचेती

Thursday, 6 June 2013

“संबंधों की छाया”




जीवन के साथी को मैने,
अपने साए में देखा है,
छोटा सा कद है मेरा,
देशांतर बढ़ते देखा है/

यह है छाया मेरे तन की,
लम्बी जाने क्यूं होती है,
दो भुजाएं ले चलता हूं,
फिर भी इतना क्यो तनती है/

धूप मिले चाहे मंथन की,
या हो कोई रूप अंधेरा,
हर मौके पर साथ निभाती,
फिर मेरी मुश्किल ढ़लती है/

छाया है छाया बंधन की,
हर पल साए सा चलती है,
हर मौके पर साथ निभाती,
फिर मेरी मुश्किल ढ़लती है; फिर मेरी मुश्किल ढ़लती है/

रचना:

प्रतीक संचेती

Saturday, 18 May 2013

इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है!



इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है,
जब यह दिल हँसता है तो कोई रोता है,
इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है/

मेरे आँखो मे आँसू जब आते है,
शायद अंबर भी अश्रु मे भिगोता है,
लेकिन कुछ का चेहरा जब खिल-खिल होता यहाँ,
तब सागर भी लहरो से कहता है......................

इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है/

कभी सोचता हुँ हँसता रहुँ,
कि उनकी उदासी देख बस मन युँ कहता है,
रो लेना तू भी थोडा सा इस धरती पर,
तेरे अश्को से यहाँ कोई अपना गम धोता है/

इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है, इस दुनिया मे ऐसा क्यो होता है..............................

रचना:
प्रतीक संचेती

Saturday, 11 May 2013

“बचपने से भरा बचपन”




बचपन के उन पलो को हम कभी शायद दोहरा तो नही सकते लेकिन उन बिताये पलो को कभी भूलना मुमकिन नही है/ ऐसे ही पलो को समेटने पेश है मेरी कुछ पंक्तियाँ:

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद   रहीं है,
बहन के साथ खेलना मस्ती भरी होली,
और माँ की याद मुझको रुला रही है/

वह तस्वीर आज इतना सता रही है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है/

मंजिलो कि खातिर दूर लगता था जाना,
लेकिन अब तो यह मंजिले भी तड़पा रहीं है,
दिल के दरवाजे अब जिस मोड पर खुलते,
वह गलिया मेरे माँ-पा के चरणो मे समा रहीं है/

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है/

शायद मै कभी तुमको बता ना पाया,
माँ अपने दिल की बात कभी समझा ना पाया,
तुम्हारी खुशियो के खातिर ही तुमसे दूर हुँ आज,
यहाँ आपकी समझ ही मुझको चलना सिखा रहीं है/

वह तस्वीर आज इतना सता रहीं है,
बचपन के पलो की जो याद रहीं है,
वह तस्वीर आज इतना सता रही है/-2

रचना:
प्रतीक संचेती

Tuesday, 2 April 2013

“कुदरत की इकाईयाँ”





लोगो ने कहा………….
अगर जिंदगी को जीना है;
तो काँटो से सीखो, कलियो से सीखो, बादल से सीखो,
मै सीखता रहा हर एक बंदे की नुमाईश पर……………
कि फिर………….
किसी ने कहा खुदा की इबादत से सीखो,
खिलते फूलो से सीखो, मौसम की आहट से सीखो……………………..

सिखाता रहा मुझे हर एक फरिश्ता,
कि मिलती रही मौसम की गहराईयाँ,
समुन्दर को छु लू ऐसा मेरा कद तो नही दोस्तो,
लेकिन आप अपनो से मिलती रही ऊचाईयाँ……..
सारे अरमानो को मैने इंसानियत मे उतारा जब,
मुझे मिलती रही खुशबू और आपके प्यार की रूबाईयाँ……………………….

तुकबंदी कहो या कहलेना इसे दिल की धड़कन,
सिखाती रही मुश्किले और बनती रही कहानियाँ,
कुदरत का स्पर्श मिलता रहा हर एक स्थान पर,
चाहे हो धरती, बादल, काँटे या अपनो की अच्छाईयाँ,
सारा कुछ इसी का है यह फूल, पौधे,
सब इसकी ही तो है इकाईंयाँ………………………
कुदरत ने दूर की मेरे दिल की हर एक तनहाईयाँ,
आप अपनो से मिलती रही जीवन को गहराईयाँ,
सब इसकी ही तो है इकाईयाँ……………….सब इसकी ही तो है इकाईयाँ……………………….

रचना:
प्रतीक संचेती