Wednesday, 5 September 2012

“गुरू ही गुलाब”




आज शब्दो से ज्यादा उन हसीन मुहावरो को समेट कर मेरे तमाम शिक्षको को नमन करता हुँ। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आप सभी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, मेरे हर कदमो को एक नई गती प्रदान की है। आप सभी के द्वारा मुझे जो व्यवहारिक योग्यता प्राप्त हुई उसके लिये मै सदैव आभारी हुँ, आपको समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ:

जहान न होता न होता गौरव,
न होती इन शब्दो की नक्कासी,
यहाँ न होती वह मंजिल-महफिल,
अगर न होती वह शिक्षक वाही।

सबर न होता न होता शीलत,
न होती उम्मीदो की भरपाई,
यहाँ न होती वह कर्मठ-कोशिश,
अगर न होती वह अतुल्य भलाई।

खडे न होते वह नटखट अंकित,
न होती इन शब्दो से चढाई,
अलग सरी की रचना ना रचती,
अगर न मिलते जिनकी करूँ अगुवाई।

धन्यवाद
प्रतीक संचेती

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