Thursday, 3 May 2012

"मजदूर की ढहती पुकार"

                                                      Written By Prateek Sancheti

कहता हूँ अपनी बोझिल जुबान से, चलता बिन पैरदानो के नाम  से, ढहती लाजमी मुस्कान में ही हूँ, कुछ  नहीं मगर मजदूर इंसान में भी हूँ;

सपनो को सजाने बाबू की पढाई लेकिन रचित डामल के पसीने में अंजाम में ही हुं,  तीखी सूर्य की ज्वाला से कार से बाहर छाते का निर्माण में ही हूँ,  कुछ  नहीं मगर मजदूर इंसान में भी हूँ;

गुलदस्तो से सजी इमारते, मंदिरों की मूर्तियों का नक्कास में ही हूँ, कटे हुए फूलो का गुलदस्ता
तुम्हे दीवाना बनाता मगर उस गुलदस्ता का आयत  में ही हूँ,  कुछ  नहीं मगर मजदूर इंसान में भी हूँ;

खेतो से लहराती सरसों, घर में पक रही बाजरा की धान, लाड निकालती  दूध  से  बनी  चावल  की  खीर,  हर  पकवान  का  उपकार  में  ही  हूँ,  अफ़सोस  मगर  कुछ  नहीं मगर मजदूर इंसान में भी हूँ !

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